-संजय सक्सेना
यूं तो देश में भले ही भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी और सबसे मजबूत पार्टी नजर आ रही है, परंतु इसके बाद भी अधिकांश राज्यों में राजनीतिक उठापटक तेज हो रही है। कह सकते हैं कांग्रेस सहित क्षेत्रीय दलों में यह सिलसिला कुछ ज्यादा ही है। उत्तर प्रदेश में चुनाव हो चुके हैं, पंजाब में उलटफेर करने के बाद आप गुजरात में कम से कम कांग्रेस को विस्थापित करने का सपना तो देख ही रही है और प्रयास भी इस दिशा में काफी ठोस चल रहे हैं। लेकिन सबसे ज्यादा नजरें यदि किसी राज्य की राजनीति पर लगी हैं, तो वह है महाराष्ट, जहां शिवसेना दो फाड़ ही नहीं हुए, अब उसके अस्तित्व पर भी सवाल उठने लगे हैं।
देश की व्यावसायिक राजधानी कही जाने वाली मुम्बई में एकतरफा राज चलाने वाली शिवसेना ने पूरे राज्य में अपना प्रसार ही नहीं कर लिया था, अपितु पांव भी जमाने लगी थी। पहले एनडीए के साथ सरकार में रही और केंद्र में भी एनडीए के साथ है, लेकिन जब से महाविकास अघाड़ी बनाकर भाजपा से अलग हुई, भाजपा ने जैसे शिवसेना को मिटाने का संकल्प ही ले लिया था। और अब वो पूरा होता दिख रहा है। शिवसेना को तोडक़र एकनाथ शिंदे के साथ आधी से अधिक शिवसेना आज भाजपा के पाले में है। अभी उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे के बीच खुद को असली शिव सेना बताने की प्रतिस्पर्धा चल रही है। इसके लिए वे कभी चुनाव आयोग के पास जाते हैं, कभी अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं, तो कभी शक्ति प्रदर्शन का सहारा लेते हैं। दशहरा के दिन दोनों गुटों ने अलग-अलग जनसभा कर शक्ति प्रदर्शन की एक और कवायद की।
देखा जाए तो कौन शिव सेना असली है और कौन टूटा हुआ धड़ा, इसका फैसला न तो जनता के बीच किए गए शक्ति प्रदर्शन से होगा और न ही दावों-प्रतिदावों से। कानून की बात करें तो अदालत या चुनाव आयोग इस बाबत फैसला करेगा, भले ही वहां भी एकतरफा निर्णय अधिक हो रहे हैं। और उनमें सत्ता का दबाव भी साफ दिखता है।
बगावत के बाद शिंदे खेमे ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई और एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री पद हासिल किया। लिहाजा, वह इसे आसानी से नहीं गंवाना चाहते। दूसरी ओर उद्धव ठाकरे अपने परिवार द्वारा स्थापित पार्टी को आसानी से छोडऩे को तैयार नहीं हैं। आखिर उनके स्वयं के और परिवार के अस्तित्व का भी सवाल है। शिंदे खेमे के पास सरकार में बने रहने और खुद को असली शिव सेना की मान्यता दिलाने की चुनौतियां हैं, तो उद्धव ठाकरे को पार्टी को बचाने की। मैदानी तौर पर देखा जाए तो टूट के समय कई विधायक बेशक शिंदे खेमे में चले गए और उन्होंने सरकार भी बना ली, परंतु संगठन का बड़ा हिस्सा आज भी उद्धव ठाकरे के साथ खड़ा दिखाई देता है। कम से कम जनसभा में उमड़ी भीड़ और पार्टी कार्यकताओं का उत्साह देखकर तो विश्लेषक यही अनुमान लगा रहे हैं।
महाराष्ट्र विधानसभा के साथ ही आगे आने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए दोनों खेमों के बीच होड़ तेज होना स्वाभाविक ही है। लोकसभा की सबसे ज्यादा सीटें उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र में में ही हैं, इनकी संख्या 48 है। इसलिए संख्या बल के नजरिये से महाराष्ट्र का महत्व भी कुछ कम नहीं है। कुछ पिछली केंद्र सरकारों के गठन पर नजर दौड़ाएं तो यह बात साफ हो जाती है। इसीलिए माना जा रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति में, खासकर 2024 में जिस पार्टी को सरकार बनाने की दावेदारी करनी है, उसके लिए महाराष्ट्र में अच्छा प्रदर्शन करना जरूरी है।
महाराष्ट्र की राजनीति की एक सच्चाई यह भी है कि यहां बहुकोणीय मुकाबला होता रहा है। शिव सेना, भाजपा, कांग्रेस या एनसीपी, किसी भी पार्टी के लिए यह संभव नहीं है कि वह अपने दम पर दूसरों का सामना कर सके। ऐसे में, जब कुछ पार्टियों का गठबंधन बन जाए, तो किसी भी दल के लिए यहां अकेले चुनाव लडऩा आसान नहीं रहता। भाजपा ने यहां हमेशा शिव सेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ा है। उसे 2024 में सहयोगी दल की सख्त जरूरत होगी। अभी तो चुनाव चिन्ह की जंग चल रही है। अंतिम फैसला जिसके पक्ष में होगा, माना जा रहा है कि उसे शिवसेना का मतदाता अधिक पसंद करेगा। यही कारण है कि महाराष्ट्र की राजनीतिक जंग ले-देकर चुनाव चिह्न पर आकर टिकती नजर आती है, जिसमें वर्तमान परिस्थितियों को देखकर तो ऐसा लगता है, जैसे उद्धव ठाकरे की पराजय हो सकती है। हां, आगे उद्धव ठाकरे अपनी कुछ अंदरूनी कमियां सुधार लें और फिर गठबंधन के साथ पूरी ताकत से संगठन बनाने में जुट जाएं, तो कुछ हो सकता है। सरकार के खिलाफ एंटीइन्कंबेंसी पैदा करने के लिए भी उनके पास समय है और मौका भी। लेकिन उद्धव ठाकरे को पुरानी आदतों और खासकर परिवारवाद को एक तरफ रखकर मैदान में कूदना होगा। यह सोचकर कि खोने को अब कुछ बचा नहीं है और पाने को सारा जहां।
Post a Comment